Haldwani News: उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर के दमुआढूंगा क्षेत्र में भूमि अधिकारों का मामला आज भी अनसुलझा है। 1952 से यहां बसे 7000 परिवारों के लिए यह मुद्दा जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। आठ दशकों से अधिक समय से यह क्षेत्रीय लोग विभिन्न कानूनी और प्रशासनिक संघर्षों का सामना कर रहे हैं। भारतीय वन अधिनियम, सुप्रीम कोर्ट के आदेश और जमींदारी विनाश अधिनियम जैसे जटिल कानूनी मामलों के बीच उलझा यह मुद्दा आज भी हल नहीं हुआ है। अब स्थानीय लोग सड़क से लेकर सदन तक आंदोलन करने की धमकी दे रहे हैं, और इसका मुख्य कारण राज्य सरकार की निष्क्रियता और भ्रम फैलाने वाली बयानबाजी को माना जा रहा है।
दमुआडूंगा क्षेत्र में बसे परिवारों के लिए संघर्ष का सिलसिला 1965 में शुरू हुआ, जब भारतीय वन अधिनियम की धारा 20 के तहत 655 एकड़ भूमि को आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर दिया गया। उस वक्त से क्षेत्रीय निवासी अपनी भूमि के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। सबसे प्रमुख संघर्ष नित्यानंद भट्ट ने 1965 की अधिसूचना के खिलाफ शुरू किया था। यह मामला निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गया। सुप्रीम कोर्ट ने 1965 की अधिसूचना को अवैध करार देते हुए वन विभाग की याचिका खारिज कर दी, और दमुआडूंगा को आरक्षित वन क्षेत्र से मुक्त कर दिया। इसके बाद नित्यानंद भट्ट ने अपनी 8 एकड़ भूमि का विनियमितिकरण कराया, लेकिन यह समाधान केवल कुछ लोगों के लिए था।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद, 1993 में वन विभाग ने फिर से दमुआडूंगा की 643 एकड़ भूमि को आरक्षित वन क्षेत्र घोषित करने का प्रयास किया। यह कदम न केवल कोर्ट के आदेश का उल्लंघन था, बल्कि स्थानीय निवासियों के भूमि अधिकारों का भी घोर उल्लंघन था। इस निर्णय से क्षेत्रीय लोग गहरे आक्रोशित हो गए और उनके बीच भारी असंतोष फैल गया। इसके बाद के वर्षों में भी, यह मामला अदालतों में चल रहा था, लेकिन निरंतर संघर्ष और असमंजस के कारण जनता की समस्याएं और बढ़ती गईं।
2016 में उत्तराखंड सरकार ने एक अहम कदम उठाया जब उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भू-सुधार अधिनियम, 1950 में संशोधन किया। इस संशोधन के तहत 26 दिसंबर 2016 को एक महत्वपूर्ण अधिसूचना जारी की गई, जिसमें राज्यपाल ने दमुआडूंगा क्षेत्र की अनारक्षित वन भूमि को ग्राम वासियों के भूमि अधिकारों के लिए आरक्षित करने की अनुमति दी। इस अधिसूचना के बाद, स्थानीय निवासियों को जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 131 के तहत असंक्रमणीय भूमिधर का दर्जा देने का वादा किया गया। इस अधिसूचना ने क्षेत्रवासियों को उम्मीद दी कि अब उनके भूमि अधिकारों को मान्यता मिलेगी और उनकी तकलीफें समाप्त होंगी।
हालांकि, इस अधिसूचना के लागू होने के बाद 2016 में सर्वेक्षण कार्य और भूमि अभिलेख तैयार करने की प्रक्रिया शुरू की गई, लेकिन 2020 में सरकार ने अचानक इस प्रक्रिया को रोक दिया। सरकार ने भू-राजस्व अधिनियम की धारा 48 का हवाला देते हुए दावा किया कि दमुआडूंगा क्षेत्र का 1/3 हिस्सा कृषि योग्य नहीं है, और इसके कारण भूमि अधिकारों के लिए प्रक्रिया को रोक दिया गया। प्रशासन और सरकार ने यह निर्णय लेने में कोई ठोस कदम नहीं उठाया और न ही उन्होंने भू-राजस्व अधिनियम की धारा 39 के तहत कोई कार्रवाई की। इसके परिणामस्वरूप, 7000 परिवारों के भूमि अधिकार एक बार फिर से अधर में लटक गए।
स्थानीय निवासियों ने सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि वह न केवल भ्रम फैला रही है, बल्कि उनकी मूल अधिकारों की अनदेखी भी कर रही है। कांग्रेस महानगर अध्यक्ष गोविंद सिंह बिष्ट ने कहा, ष्सरकार ने 2016 में एक आशा की किरण दिखाई थी, लेकिन अब वह जनता को गुमराह कर रही है। भूमि अधिकारों का मामला अब तक सिर्फ आश्वासनों तक सीमित रहा है, और लोग अब इस धोखाधड़ी को बर्दाश्त नहीं करेंगे।ष्
दमुआडूंगा क्षेत्र के 7000 परिवारों ने अब चेतावनी दी है कि यदि उनके भूमि अधिकारों को तुरंत मान्यता नहीं दी जाती और लंबे समय से लटके हुए कानूनी फैसलों को लागू नहीं किया जाता, तो वे सड़क से लेकर सदन तक आंदोलन करेंगे। जनता का कहना है कि 2016 के संशोधित कानूनों और अधिसूचनाओं को लागू करने में सरकार की देरी उनके अधिकारों का उल्लंघन है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
प्रेस वार्ता में गोविंद बिष्ट, प्रकाश पांडे, महेशानंद, हरीश लाल वैध, मन्नू गोस्वामी, जगदीश भारती, लाल सिंह पवार, जीवन गोस्वामी, राजेन्द्र सिंह राणा, चंदन गोस्वामी, कृष्ण कुमार, संजय जोशी, बबलू बिष्ट, राजकुमार जोशी, आनंद बिष्ट, जीवन बिष्ट, दीपा टम्टा, और सीमा लोहानी जैसे प्रमुख क्षेत्रीय नेता और कार्यकर्ता उपस्थित रहे।
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Chief Editor, Aaj Khabar