अल्मोड़ा। उत्तराखंड अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, गौरवशाली परंपराओं और लोक कलाओं को संजोए हैं। यहां की संस्कृति और लोककला बेजोड़ है तो है ही लोक संस्कृति का भी अपना अलग महत्व है। होली का नाम आते ही उमंग और उत्साह का ख्याल मन में हिलोरे मारने लगता है। बात कुमाऊनी होली की हो और अल्मोड़ा का नाम न आए। पौष महीने के पहले रविवार से शुरू होने वाली सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की प्रसिद्ध व ऐतिहासिक होली पूरे शबाब पर है। देर रात तक होली गायन की महफ़िलें जम रही है। रंगकर्मी, कलाकार और स्थानीय लोग देर रात तक बैठकी होली के रागों का आनंद ले रहे हैं। अगर बात की जाए अल्मोड़ा में बैठकी होली के इतिहास की तो इसका इतिहास 150 वर्ष से भी पुराना माना जाता है। कुमाऊ में होली गीतों के गायन की परंपरा अल्मोड़ा से ही शुरू हुई थी। इसकी शुरूआत 1860 के आसपास होली गायन की शुरूआत हुई थी। बैठकी होली में भारतीय शास्त्रीय संगीत से संबंधित विभिन्न रागों यमन, खमाज, पीलक काफी, जंगलाकाफी, सहाना, देश, श्याम कल्याण, शुद्ध कल्याण, मधुमाद सारंग, भैरवी, भीमपलासी पहाड़ी, झिंझोटी, विहाग मारु विहाग, बसंत, परज, मिश्र खम्माज, जोगिया, जैजैवंती, बहार तथा बागेश्री शामिल हैं। हालांकि अब कुछ राग भी इसमें जोड़ दिए गए हैं। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की होली काफी प्रसिद्ध है। पौष महीने के पहले परिवार से होली की शुरूआत होती है। शुरूआत में ईश्वर की आराधना के निर्वाण गीत गाए जाते हैं। बसंत आते ही होली गायन में श्रृंगार रस का गायन होने लगता है।
चीर बंधन व रंग पड़ने से पहले होली पूरे शबाब पर पहुंच जाती है। महिलाएं घर-घर जाकर परंपरागत होली गायन करते हैं, जिसमें श्रंगार रस की होली राधा-कृष्ण, शिव पर आधारित खड़ी बैठकी का आयोजन होता है। पुरुषों की होली का अपना अलग अंदाज होता है जिसमें ढोल, थाल, मजीरा, चिमटा और हुड़का वाद्य यंत्रों के साथ देवी देवताओं की कथा गाई जाती है। लोग टोली में अपने मंदिरों गायन करते हैं।
Chief Editor, Aaj Khabar