खालिस्तानः कहानी बहुत पुरानी है- 1929 में कांग्रेस के लाहौर सेशन से लगी थी अलगाव की आग, पीएम-सीएम और जनरल को गंवानी पड़ी जान।

खालिस्तानः कहानी बहुत पुरानी है- 1929 में कांग्रेस के लाहौर सेशन से लगी थी अलगाव की आग, पीएम-सीएम और जनरल को गंवानी पड़ी जान।
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नई दिल्ली। ‘खालिस्तान’ की चर्चा 18 सितंबर से हो रही है। जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो ने खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के शामिल होने का आरोप लगाते हुए वहां देश की शीर्ष राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित करने का आदेश दे दिया। भारत ने भी तुरंत इस पर प्रतिक्रिया देते टॉप डिप्लोमैट को देश छोड़ने का फरमान सुना दिया। इस अलगाववाद की कहानी की शुरूआत 1929 में कांग्रेस के लाहौर सेशन से होती है जिसमें अलगाववाद की आग जली थी। जिसमें शिरोमणि अकाली दल के नेता मास्टर तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग रखी थी। देश का बंटवारा हुआ तो इसने आंदोलन को रूप ले लिया। आजादी के समय पंजाब के भी दो टुकड़े हुए। शिरोमणि अकाली दल आजादी के बाद से भारत में भाषा के आधार पर सिख प्रदेश की मांग कर रहा था जिसे भारत में बने राज्य पुनर्गठन आयोग ने मानने से इंकार कर दिया। 1947 से 1966 तक पूरे 19 साल सिख प्रदेश की मांग को लेकर आंदोलन होते रहे। 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब को भाषाई आधार पर तीन हिस्सों में बांट दिया। पहला पंजाब, दूसरा हरियाणा और चंडीगढ़। चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। दोनों नए प्रदेशों की राजधानी चंडीगढ़ को बना दिया गया। वहीं पंजाब के कुछ पर्वतीय इलाके हिमाचल में शामिल कर दिए गए जिससे लोगों में नाराजगी भर गई। इस आंदोलन का सबसे ज्यादा अकाली दल को मिला। 1969 में पंजाब के तत्कालीव वित्तमंत्री रहे जगजीत सिंह चौहान चुनाव हारने के बाद खालिस्तानी आंदोलन को हवा देने लगे। जगजीत सिंह ने खालिस्तानी आतंकवाद को बढ़ावा देने के कई तरीके अपनाए। साल 1971 में न्यूयार्क टाइम्स में विज्ञापन छपवा कर जगजीत सिंह चौहान ने खुद को खालिस्तान का पहला राष्ट्रपति घोषित कर दिया था। 1981 में खालिस्तानियों के खिलाफ लेख लिखने पर पंजाब केसरी के संपादक लाला जगत नारायण की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्या में भिंडरावाले के साथ ही अन्य आतंकी संगठनों का नाम सामने आया। भिंडरावाले ने इस मामले में सरेंडर भी किया था लेकिन सबूत नहीं मिले तो उसे छोड़ दिया गया। खालिस्तान समर्थकों को लेकर भारत और कनाडा में तनातनी में 1982 में तब हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कनाडाई पीएम पियरे ट्रूडो (जस्टिन ट्रूडो के पिता) से बब्बर खालसा के आतंकी पलविंदर सिंह परमार को भारत को सौंपने लिए कहा था, लेकिन पियरे ट्रूडो ने इंकार कर दिया। 1982 में भिंडरावाले और अकाली दल ने हाथ मिला लिया और असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया जो बाद में सशस्त्र विद्रोह में बदल गया। भिंडरावाले को पकड़ने लिए सुरक्षाबलों ने जाल बिछाया लेकिन भिंडरावाले सुरक्षाबलों से बचने के लिए स्वर्ण मंदिर में घुस गया और स्वर्ण मंदिर परिसर में बने अकाल तख्त पर काबिज हो गया। भिंडरावाले को पकड़ने के लिए स्नैच एंड ग्रैब आंपरेशन के लिए दो सौ कमांडों को प्रशिक्षित किया लेकिन फिर इसे रोक दिया गया। भिंडरावाले और उसके समर्थकों को पकड़ने के लिए सेना ने मोर्चा संभाल लिया और पांच जून 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार का पहला चरण शुरू किया गया। छह जून को भारी गोलीबाजरी के बीच भिंडरावाले और उसके समर्थकों के शव बरामद कर लिए गए। ऑपरेशन ब्लू स्टार खत्म हुआ जिसके बाद 12 जून 1984 को जगजीत सिंह चौहान ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि जल्द ही आपको खबर मिलेगी कि इंदिरा गांधी और उसके परिवार का सिर कलम कर दिया गया है। 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी गई जिसके विरोध में दंगे भड़क उठे। 23 जून 1985 को खालिस्तान समर्थकों ने एयर इंडिया की फ्लाइट को बम से उड़ा दिया जिसमें 329 यात्रियों की मौत हो गई। 10 अगस्त 1986 को ऑपरेशन ब्लू स्टार को लीड करने वाले पूर्व सेना प्रमुख जनरल एएस वैद्य की पुणे में हत्या कर दी गई। खालिस्तान कमांडो फोर्स ने इसकी जिम्मेदारी ली। 31 अगस्त 1995 को पंजाब के सीएम बेअंत सिंह की कार के पास सुसाइड बॉम्बर ने खुद को उड़ा लिया जिसमें बेअंत सिंह की भी मौत हो गई। लंबे समय बाद खालिस्तान का जिन्न फिर बोतल से बाहर आया है। राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो यह प्रोपेगैंडा विश्व स्तर पर भारत की बढ़ती साख को धूमिल करने के लिए किया जा रहा है। कुछ अलगाववादी लोग खालिस्तानी इतिहास की याद दिलाकर इसे बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।

 

-ट्रूडो की पार्टी को हासिल है खालिस्तान समर्थक समूहों का समर्थनः-

1990 के आखिर तक भारत में खालिस्तान आंदोलन अपने अंतिम चरण के करीब था, वहीं कनाडा में तेजी से फलने फूलने लगा। जस्टिन ट्रूडो 2015 में सत्ता में आए तो खालिस्तान की मांग तेज हो गई और इसके समर्थन में प्रदर्शन भी होते रहते हैं। जस्टिन ट्रूडो के पीएम बनने के बाद खालिस्तान आंदोलन में तेजी देखने में आई है।

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