हल्द्वानी। ‘रंग फीके पड़ने लगे हैं मेरे गांव में तबसे, तितलियां शहरों को उड़ने लगी हैं जबसे, बंजर खेत, फूलों की कलियां आज कुछ सवाल करती हैं कि लौट तो आओगे ना तुम या कुछ खता हो गई हमसे’…. दीपक उनियाल की पलायन पर लिखी ये पंक्तियां व्यवस्था को भी कोसती हैं और इंसानी मंजबूरी को भी दर्शा जाती हैं। पलायन का दर्द वहीं समझ सकता है जिसने इसे करीब से देखा हो और महसूस किया हो। उत्तराखंड की बेटी सृष्टि भी इस दर्द को काफी करीब से देख चुकी हैं। इन्हीं मजबूरियों को समाज के सामने लाने के लिए सृष्टि लखेरा ने एक फिल्म बना डाली ‘एक था गांव’। गढ़वाली और हिंदी भाषा में बनी इस मूवी को बेस्ट नॉन फीचर फिल्म के अवार्ड से नवाजा गया है।
टिहरी जिले के कीर्तिनगर के सेमला गांव की मूल निवासी हैं। पलायन क्या है और इसका दर्द क्या है, इसे उन्होंने करीब से देखा है और महसूस भी किया है। सृष्टि ने पलायन के दर्द को एक घंटे की फिल्म में उतारा है। खाली होते गांवों की कहानी का फिल्मांकन सृष्टि ने जिस तरह से किया है वह काबिले तारीफ है। एक 80 साल की वृद्धा की संघर्ष गाथा दिल को झकझोर देने वाली है। मंगलवार को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह के दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सृष्टि लखेरा को सम्मानित किया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि मुझे खुशी है कि महिला फिल्म निर्देशक सृष्टि लखेरा ने ‘एक था गांव’ नामक अपनी पुरस्कृत फिल्म में एक 80 साल की वृद्ध महिला की संघर्ष करने की क्षमता का चित्रण किया है। महिला चरित्रों के सहानुभूतिपूर्ण और कलात्मक चित्रण से समाज में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान में वृद्धि होगी।
Chief Editor, Aaj Khabar